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कविता

राजधानी में

ऋतुराज


अचानक सबकुछ हिलता हुआ थम गया है
भव्‍य अश्‍वमेघ के संस्‍कार में
घोड़ा ही बैठ गया पसरकर
अब कहीं जाने से क्‍या लाभ ?

तुम धरती स्‍वीकार करते हो
विजित करते हो जनपद पर जनपद
लेकिन अज्ञान, निर्धनता और बीमारी के ही तो राजा हो

लौट रही हैं सुहागिन स्त्रियाँ
गीत नहीं कोई किस्‍सा मजाक सुना रही हैं -
राज थक गए हैं
उनका घोड़ा बूढा दार्शनिक हो चला अब
उन्‍हें सिर्फ राजधानी के परकोटे में ही
अपना चाबुक फटकारते हुए घूमना चाहिए

राजधानी में सबकुछ उपलब्‍ध है
बुढ़ापे में सुंदरियाँ
होटलों की अंतर्महाद्वीपीय परोसदारियाँ

राजधानी में खानसामे तक सुनाते हैं
रसोई में महायुद्धों की चटपटी खबरें

 


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